Wednesday, August 31, 2011

अन्ना नहीं नेता इस लोकतंत्र के लिए खतरा हैं


 सुनहरे भारत का स्वप्न एक ऐसी relay race थी जिसमे गांधीजी के बाद जो भी धावक आये वो उस बड़ी सोच से कटते चले गए और इसे निजी स्पर्धा समझने लगे| दुर्भाग्यवश, आज़ादी के कुछ दशकों बाद ये स्पर्धा अकूत संपत्ति के अर्जन की प्रतिस्पर्धा में बदल गयी| नतीजा आज पूरे राष्ट्र के सामने है : भ्रष्टाचार राजनीति की रगों में इस कदर बहने लगा है कि इन दोनों को अलग कर पाने के लिए स्पेशल सर्जरी की जरूरत है | जन लोकपाल के जोश में जन-जन के कूदने के फायदे तो हुए हैं पर इसके नुकसानों की चर्चा भी जरूरी है| मैं उन नुकसानों को सिरे से नकारता हूँ जो सत्तावर्ग ने अपने फायदे के लिए चर्चित किये हैं: इस तरह के आन्दोलन लोकतंत्र के लिए सही सन्देश नहीं हैं वगैरह वगैरह | दुर्भाग्यवश इन तर्कों के खरीददार वे तथाकथित बुद्धिजीवी भी हैं जो या तो इस आन्दोलन में अपना कोई बड़ा योगदान नहीं देख पाते या फिर सिर्फ अलंग स्टैंड रखने के फैशन के शिकार हैं | इस वर्ग से गहरी सहानुभूति रखते हुए मैं भ्रष्टाचार से लड़ने की लोकपाल की काबिलियत पर प्रश्न उठाना चाहता हूँ | जन लोकपाल के प्रति लोगों में जो गहरी आस्था उमड़ी वह स्वतःस्फूर्त थी | एक विशाल दैत्य से लड़ने के लिए लोगों को जो हथियार मिल जाएगा लोग उसी में विश्वास कर लेंगे क्यूंकि उसके अत्याचारों से लोग त्रस्त हैं और उनके पास विकल्प नहीं हैं | विकल्प  तो दूर की बात लोग अब तक इसे जीने का तरीका मान चुके थे |



अन्ना का जादू चल गया 

 अगर हम आजादी के बाद से अब तक के भारत को एक विश्लेषक कि नज़र से देखें तो अन्ना जो कर पाए वो किसी जादू से कम नहीं| सौ-सवा सौ वर्षों के संघर्ष के बाद भारत विश्राम की मुद्रा में इस कदर लेटा था  कि उसे अपने रोटी-दाल और मारुति 800 के सिवा किसी भी बात की चिंता नहीं थी| कभी-कभार इसपर चिंता कर लिया करते थे कि सचिन का शतक क्यूँ नहीं हो पाया | उस पीढ़ी ने आज के युवाओं को पहले से ही सरफिरा और गैर-जिम्मेदार करार दे रखा है | मीडिया ने तो 'Pizza Generation' और 'Twitter Generation' जैसे नए जुमले भी फैशन में ला दिए हैं| इस पीढ़ी के लिए चिंता दाल-रोटी और कम्मो कि शादी से ऊपर उठ चुकी थी और उसने अपने आस-पास की हर चीज़ पर प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया| उत्तर उसे हर बार बेतुके मिले| देश की इस नयी पीढ़ी को हर चीज़ से adjust करने के लिए प्रेरित किया गया| कुछ ऐसे थे जिन्होंने adjust करना तर्क करने से बेहतर समझा, कुछ ने बीच का रास्ता निकाला और विदेशों में जा बसे, जहाँ इस लडाई का scope नहीं था| पर बाकी के लोगों ने इन सवालों को मौन कर अपने दिल में रख लिया और उसके उत्तर तलाशते रहे | सब उत्तर एक ही और इशारा करते दिखे: व्यवस्था परिवर्तन- systemic change| 


जब अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम ने अन्ना से भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडाई में अन्ना हजारे को नेतृत्व के लिए मना लिया तब भारत खुद एक विश्वसनीय चेहरा ढूंढ रहा था| अगर ये चेहरा 74 वर्ष के इस बुजुर्ग का न होकर किसी युवा का होता तो ये आन्दोलन इससे कई गुना बड़ा होता पर इतना नियंत्रित और अनुशाषित न हो पाता| जिन्होंने एक सोते हुए भारत को देखा है, 'चलता है' कहकर रिश्वत देने वाले भारत को देखा है उनके लिए ये आन्दोलन हतप्रभ करने वाला है, चमत्कार है पर जिसने मेरे भारत की बेचैनी देखी है उनके लिए ये ट्रेलर था, स्वाभाविक था|

लोकपाल नहीं तो फिर क्या?

ये बात मानी जा सकती है कि भूखे को दो रोटी से भी फर्क पड़ता है, पर सवाल है कि हम भूख के परमानेंट इलाज के लिए concerned हैं या दो रोटी खिलाने की अपनी ख़ुशी के लिए | नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर सौ की बजाय पांच सौ माँगने वाले ऑटो चालक पर लोकपाल एक्शन नहीं ले पायेगा ना ही pantry staff से 10 रुपये की पानी की बोतल 10 ही रुपये में दिला पायेगा| ट्रेन में reservation नहीं मिल पाने पर फिर भी TTE को 100 के नोट वाले गांधीजी ही समझा पायेंगे | आम नागरिक को paassport , राशन कार्ड और driving license रोज नहीं बनवाना होता उसे तो रोज़मर्रा की जिंदगी में जिन अफसरों से पाला पड़ता है उनमे सबसे बड़ा तो शायद सड़क का ठुल्ला ही होता है|

ये बात और है कि बतौर राजीव गाँधी केंद्र से चले 1 रुपये में से जो 15 पैसे ही विकास कार्य में पहुँच पाते थे वो आंकड़ा हो सकता है लोकपाल, वो भी एक सशक्त लोकपाल, की वजह से 25 पैसे हो जाए| पर बचे हुए पचहत्तर पैसे के लिए राजनीति और beaurocracy में नैतिकता और development के प्रति तत्पर सोच की जरूरत है | ये सोच किसी कानून और बतौर राहुल गाँधी किसी 'संवैधानिक संस्था' से नहीं आ सकती, इसके लिए तो इस बिरादरी में ज़मीन से उठे  हुए कर्मठ ब्रिगेड की शिरकत जरूरी है| भ्रष्टाचार को नसों से निकाल पाने के लिए पदों पर उन लोगों के आने की जरूरत है जो जेबे भरने और कोठियां खड़ी करने के लिए आईएस या नेता नहीं बनते बल्कि देश के उत्थान के लिए जीते हैं | 

जरूरत इस बात को भी समझने की है कि IAS, IPS जैसी उच्च सेवाओं में योग्यता के अनुपात में सरकार वेतन नहीं देती |  ऐसे में टॉप Universities की तरह साल के कुछ निर्धारित दिन consultancy के लिए दिया जाना भी वेतन बढाने के सिवा एक विकल्प हो सकता है | सांसदों का वेतन बढ़ना एक सही कदम था और ये अभी और भी बढ़ना चाहिए| हम हर बात में अमेरिका को एक standard की तरह देखते हैं तो हमे ये भी देखना चाहिए कि US Senator की सालाना तनख्वाह $174,000 है| इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सिस्टम ऐसा है कि इसने रिश्वतखोरी को एक जरूरत बना दिया है | सिस्टम में बुनियादी बदलाव अवश्यम्भावी हैं |


विधानसभा से संसद तक: अनपढ़, नालायकों की जमात 


ओम पुरी, किरण बेदी और उनकी टीम के अन्य साथियों पर विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाने वाली संसद से मेरा सवाल है कि सांसदों पर टिप्पणी करना अगर गलत है तो आम जनता के पैसों से चल रही संसद का अपना काम न करना ज्यादा गलत है| ऐसे में पूरे देश की जनता की तरफ से इस संसद पर मैं जनता के अधिकारों के हनन का मुकदमा दायर करता हूँ | विधानसभाओं में कुर्सियां और चप्पलें जब चलती हैं तो भी जनता के मान-सम्मान को ठेस पहुंचती है | उस मानहानि का क्या जो सत्र-दर-सत्र आप सभी ने संसद की कार्यवाही ठप करके की है ? 

संसद मुझे ये बताये कि लालू यादव सरीखे १०० प्रतिशत भ्रष्ट नेताओं द्वारा अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल का मजाक उड़ाने और सदन का मेजें पीटकर समर्थन करने के खिलाफ मुझे विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव कहाँ पेश करना होगा ?


संसद मुझे ये भी बताये कि देश की जनता की भावनाओं को सामने लाने वाली मीडिया और पढ़े-लिखे समाज का जो मज़ाक शरद यादव ने उड़ाया था उसके खिलाफ कार्यवाही कहाँ और कब होगी?


मैं इस संसद को दो टूक शब्दों में ये कह देना चाहता हूँ कि 'संसद supreme है' ये गाने से आपको सम्मान की नज़रों से नहीं देखा जाएगा| पहले आप अपना स्तर सुधारिए, अपने काम पर ध्यान दीजिये फिर हमसे सम्मान की अपेक्षा करियेगा| नहीं तो सांसदों की बखिया उधेड़ने वाला हर ओम पुरी ऐसे ही घर-घर का सुपरस्टार बनता रहेगा| संसद और डेमोक्रेसी को सबसे बड़ा खतरा नाकारे सांसदों से है, घटिया नेताओं से है, किसी अन्ना हजारे से नहीं और न ही किसी जन आन्दोलन से है|

Corruption-free भारत का सपना

इंडिया के वर्ल्ड कप जीतने पर जो जन-उन्माद दिखा था वो ऐसी जनता का उन्माद था जिसके पास एक साथ celebrate करने की वजहें कभी नहीं होती | क्रिकेट इसलिए इस देश को जोड़ता है क्यूंकि 'दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है' | एक सुव्यवस्थित, समृद्ध  और नेताओं के नहीं जनता के भारत का सपना जो इस युवा पीढ़ी ने देखा है उसके लिए आगे व्यवस्था परिवर्तन की एक लम्बी लड़ाई है| अन्ना की अगस्त क्रांति तो बस पहला कदम है| 

ये तो भविष्य को बताना होगा कि स्वर्णिम भारत का सपना लिए कौन और कब गांधीजी की डंडी को अपने हाथ में थामता है|
जय हिंद |
जय युवा |

7 comments:

  1. bahut khuub mere dost .... maamle ka bahut gahrai se adhyayan kiya gaya hai ... tumhare jaise logo ki is system ko aavshyakta hai ...

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  2. bahut badhiya vivek baabu... ham bhi aapke sath hain..

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  3. Anonymous babu! Hum aapke shukragujaar hain... par parichay de dete to achha rehta.

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  4. चिडिया चोंच से आग बुझा रही थी. बन्दर ने टोका, चोंच के पानी से कितनी आग बुझेगी. चिडिया ने कहा इससे फर्क नही पड्ता की आग कितनी बुझेगी, बात तो ये है कि मेरा नाम आग बुझाने वालों में लिखा जायेगा, लगाने वालों में नही. आपके प्रयास से देश को कितना नैतिक बल मिलेगा मुझे नहीं पता, मगर निश्चित रूप से आप नीति की बात कर रहे हैं अनीति की नहीं. सो धन्यवाद्.

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  5. Waah! Anand aa gaya aapki tippani padhke... mera yahi kehna hai ki ye to anna ko bhi nahi pata tha unke prayas se abhiyaan ko kitna bal milega. Prayas ki mahatta hai to hum sab ko karte rehna chahiye... utsahvardhan ke liye dhanyavaad.

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