Thursday, December 29, 2011

लडाई नए भारत की


मेरे अन्ना! मत हो अधीर 
रामलीला फिर से लौटेगी भीड़
आज़ादी की पहली उफान 
को जब लगे थे नब्बे साल 
दूसरी लहर चंद महीनों 
में भला कैसे पाएगी तीर?

गाँधी लड़े थे गोरों से 
तुम लड़ रहे चोरों से 
तब लड़े थे स्वराज को 
आज तरसे सुराज को 
समझो देश की चिंता पर 
जब वोटों की ममता है भारी
संसद की प्रभुसत्ता पर
इस नागिन ने कुंडली मारी 
लोकतंत्र के शीर्ष पर 
जब चल रही हो चमचेबाज़ी 
तो पुकार है लम्बे युद्ध की 
जन जन को करने प्रबुद्ध की   

गाँधी को फिर से जीना होगा 
अपमान-विष पीना होगा 
to be continued.... 














Tuesday, September 27, 2011

नीतीश की जय जयकार पर नहीं सुधरा बिहार


दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में बैठे मीडिया के धुरंधरों को बिहार का बेहतर होना बड़ा रोमांटिक लगता है और उनके लिए TRP के अलावा इसके और भी फायदे हैं| बिहार की so-called बेहतरी बड़े शहरों में safety की एक फीलिंग देती है| कुछ वैसे ही जैसे अमरीका वालों को पाकिस्तान के stable होने पर बेहतर नींद मयस्सर होती है| 

घुप्प अँधेरे में किसी के दिया जला देने पर जैसा शोर मचता हो कुछ वैसा ही नीतीश की सरकार के साथ बिहार में हो रहा है| और शोर बड़े longlasting हैं क्यूंकि इंडियन मीडिया की चमत्कारों में जबरदस्त रूचि है| बिहार में बीते पांच सालों में जो हुआ है वह निश्चित तौर पर चमत्कार है: लालू के बिहार के लिए, न मेरे लिए और न ही सामान्य बिहार के लिए| किसी भी दूसरे राज्य के लिए ये सब किया-धरा शायद सामान्य की श्रेणी में भी न आये| मैं नीतीश कुमार का आलोचक तो नहीं पर देश के नेताओं की अदूरदर्शिता का अभ्यस्त हूँ| यह दुःख की बात  है कि डेमोक्रेसी के इतने लम्बे नाटक में  इस देश ने ऐसे बहुत कम किरदार देखे हैं जो चुनाव की जीत और मीडिया की प्रीत के आगे सोच पाते हों| मुझे डर है की नीतीश कुमार भी उसी बहुमत का हिस्सा न बन जाएँ|


कहाँ है ये नया बिहार?

अपने एक वर्ष के बिहार प्रवास में मैंने उस बिहार को ढूँढने की बहुत कोशिश जो आजकल अखबारों में और टीवी पर दिखने लगा है, पर मुझे मिला वही पुराना लालू का बिहार minus अपराध और भय| आज भी बिहार में सडकें और फसलें इन्द्र देवता की कृपा के भरोसे हैं: कहीं थोड़ी बहुत अच्छी सडकें हैं भी तो अनाज सुखाने और बैठक लगाने के काम आती हैं| राजधानी पटना में सड़कों का हाल जो था कमोबेश वही है, हाँ आजकल खैनी मसलते हुए पुलिसवाले ज्यादा नज़र आते हैं| बिहार की सड़कों पर दो चार दिन सफ़र करें तो आपको ये भी पता चलेगा कि सडकें अच्छी हो तो इससे मवेशियों और पैदल चलने वालों को कितनी सुविधा होती है और सडकों पर गाड़ियों के चलने से उन्हें कितनी असुविधा होती है | इन्ही बातों को ध्यान में रखते हुए माननीय लालू जी ने अपने कार्यकाल में गाडी वालों पर रंगदारी टैक्स का प्रचलन शुरू किया था| विश्वास करिए मेरा, आज भी बिहार की सड़कों पर कई लालू कई रूपों में नज़र आते हैं| 


ए शिवानी! ये कैसी राजधानी?

राजधानी पटना में FM channels तो खूब व्यवसाय कर रहे हैं पर उनके prime time के anchors बड़े confused रहते हैं कि सुनने वालों को ये बताएं कि जाम कहाँ है या फिर ये कि कहाँ नहीं है| चूंकि VIPs के लिए सड़क खाली कर दी जाती है तो सब ठीक हीं है| बाकी शहरों का हाल बता पाना मुमकिन नहीं है तो मैं अगले मुद्दे पर चलता हूँ| माहौल आज भी लालू एरा का बना हुआ कि चूंकि शहर में रहने वाला हर आदमी गरीब है अतएव तरजीह सिर्फ उन्ही की सुविधाओं को दी जायेगी| रिक्शे, shared ऑटो और भीड़ भरी बसों से आप सफ़र नहीं कर पाएं तो औने-पौने दामों पर taxi और reserved ऑटो आपको ढूँढने पर मिल सकते हैं| पूरे शहर में रेड lights काम नहीं करतीं हैं पर traffic को हाथ देकर कण्ट्रोल करने वाले आपको हर कहीं मिल जायेंगे| ये एकमात्र सिटी है पूरे विश्व में जहाँ traffic control का काम PPP (Public Private Partnership) से चल रहा है| रेलवे स्टेशन और एअरपोर्ट में competition इस बात का है कि कौन ज्यादा substandard है देश के अन्य शहरों के मुकाबले| 


कराहती शिक्षा व्यवस्था

शिक्षा व्यवस्था इतनी लचर है कि इसे अशिक्षा व्यवस्था कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी| स्कूलों में मास्टर जी आज भी सिर्फ हाजिरी बनाने ही आते हैं, अंतर इतना है कि जो काम पहले घर बैठे हो जाता था अब उसके लिए उन्हें आना पड़ता है| 'सरकार हर महीने पगार देकर जो एहसान करती है उसके लिए इतना तो बनता है भाई|' tution के मास्टर गाँव-गाँव में रोज़ पढ़ाने के नाम पर धंधा चला रहे हैं| क्या पढ़ा रहे हैं और कैसे पढ़ा रहे हैं इस तक बात पहुँचने में एक अरसा लग जाएगा| कॉलेज तो बस admission और डिग्री के लिए हैं| परीक्षाओं में खुल्लमखुल्ला नक़ल तो बंद हो गयी है पर असल माहौल अब भी बरक़रार है| छात्र कॉलेज जाते नहीं प्रोफेसर पढ़ाते नहीं| हाँ, graduation क़ी डिग्री में अब पांच साल क़ी बजाये साढ़े तीन साल ही लगते हैं| Higher education के लिए तो बिहार से बाहर जाना ही एकमात्र विकल्प है|


कमजोर प्रशासनिक मैनेजमेंट 

जो लोग नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री बनने क़ी बात करते हैं वो ये भूल जाते हैं कि नीतीश कुमार रेल मंत्री रह चुके हैं| अगर उनका नेतृत्व इतना ही कुशल और सक्षम था तो प्रधानमंत्री क़ी कुर्सी का रास्ता सीधा वहीँ से जाता था| बिहार का byepass क्यूँ? बिहार में अब तक NDA की सरकार ने जो किया है वो करना एक elected govt के लिए औपचारिकता मात्र है| अब यहाँ से अगर आगे बिहार को एक विकसित राज्य बनाने में नीतीश कुमार सफल होंगे तो उनके नेतृत्व और व्यक्तित्व को ऐतिहासिक मायने मिलने चाहिए| दुर्भाग्यवश सरकारी policy अब तक तो vote बैंक से development तक नहीं पहुँच पायी है| 



जोर वाहवाही लूटने पर न हो 

जब लोगों का living standard पिछड़े अफ़्रीकी देशों की याद दिलाता हो और औद्योगीकरण शून्येतर हो तो जोर infrastructure के विकास पर और सख्त सुधारों पर होना चाहिए, मीडिया को लुभाने वाले विधेयकों और मसीहाई स्कीमों पर नहीं| जब ग्लोब के दूसरे हिस्से बुल्लेट ट्रेन के पीछे लगे हों तो गाँव की लड़कियों में साइकिल बाँट कर खुश होना cheap लगता है| जब देश के दूसरे राज्य Information Technology और industrialization के दम पर दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे हों तो किसानों के लिए बीज-खाद का राग अलापना बंद होना चाहिए| किसान-किसान के गीत गाकर आप देश की communist मीडिया को तो रिझा लेंगे पर दुनिया के कोने कोने में जा बसे युवा talent को न तो बुला पायेंगे और न जाने से रोक पायेंगे| पीठ ठोंकने वाली मीडिया और सरकार ये समझे कि मेधा का पलायन money का पलायन है|


नीतीश कुमार की प्रशंसा अगर TRPमंद है तो हो सकता है उनकी आलोचना भी publicity stunt हो| कोशिश बस इतनी है कि तालियों की गूँज में भविष्य के नुस्खे गुम न हो जाएँ, विकास की बातें बस कागजों और आंकड़ों में न  सिमट जाएँ, राज्य का सुशासन अखबारों में कम सड़कों पर ज्यादा दिखे|
मेरी तो शुभकामनाएं हैं कि नीतीश की सरकार तीस की हो पर उन तीस सालों में वो बिहार को देश से तीस साल आगे ले जाएँ तो उनकी नीति और उनकी कृति की असली जय जयकार होगी| 

Saturday, September 17, 2011

India: A Country of Beggars

On a family trip to Rajsthan in my adolescence, i wondered why some foreigners were giving 100 Rupee notes to beggars to pose for some quick shots. The scene is still fresh in my mind and now i wonder why dint they opt for the big beggars who sit in most of Indian offices. That must have been more amusing for the better quarter of the globe.

The huge pool of these real beggars have consistently eaten away the country's economy and made big holes in our development budget. Due to their in-built tendencies and insatiable hunger for illicit money, we find pseudo beggars on our streets who are beggars by force, not by choice. In recent past, we have seen a lot of shouting at politicians and blaming the system for everything. I would just like to highlight that a big part of this returns to us: we, the people!


What about the educated class?


Amidst all the hullabaloo about the illiterate, uneducated politicians, i would like to raise some questions to the educated people, mostly middle class people. Don't you think that what's happening to you with regard to corruption is very similar to whats happening to Pakistan with regard to Taliban. The whole institution of corruption has thrived with your support all these years. Next, isn't it our character to adjust with the system and tamely oblige to the traditions and customs? Isn't it 'fine' to take advantage of everything without thinking what is right and wrong?

You can see it in the number of fake bills produced for reimbursement in corporate world. Everyone creates logical support for his pseudo morality. What the middle class does in day-to-day life is miniature form of what our ministers and bureaucrats do on a bigger scale. I know people in our society react very strongly when faced with such uncomfortable questions. The whole system unites to defend itself on flimsy grounds once you show it to be corrupt. I have seen this in one of the most prestigious institution in India- IIT! From student bodies to institute management, no one minds some extra bucks and undue advantage of his position coming his way. A couple of hostel council members once flew to Delhi and then traveled to Meerut to buy a couple of cricket bats for their hostels' cricket team at IIT Kharagpur! If it can happen in IITs then whats so funny about Mr Lalu Prasad getting buffaloes transported on scooters! Ultimately everyone is doing it for extra bucks. If it's government officials, its paap. But, when  its in day-to-day life: ' itna to chalta hai'. Corruption is corruption. There is no such thing as big corruption or small corruption. Taking 10 Rs more is also corruption. This is the seed.


Civil society is responsible


The likes of Arvind Kejriwal and Kiran Bedi have to take so much pain because everyone else who was in a position to do something, chose to live in the comforts that high government posts offered them. May be, they will end up suffering more than what they are able to achieve because the civil society, in general, is indifferent. A few patches here and there are voicing support but none willing to sacrifice.


We are so poor we can sell anything

Everyone seems to be living with a feeling of having a royal descent. Its all about chance: once they get it in the form of a government job or position of power, they make full use of it to make as much money as they can. Not a wonder that people say: "Corruption is a high profit, low risk business in India." The moment they get a chance, they behave like Emperors! The Babus and Netas need all the privileges and luxuries that they need not pay for! In lieu, honesty is on sale. High degree of moral poverty.



Its incorporated in the system

An IAS officer, a Mantri who is handling decisions involving crores comes from modest backgrounds and has  legal earnings of 30-40 thousands. Where comes the question of survival of integrity? The system must provide him enough strength to counter the crusades against his integrity.


The typical middle class mindset

Voices raised are least encouraged. The mindset was on exhibition in Radhika Tanwar case and Jessica Lall case. Facebook and twitter can inspire the middle class to join candle light vigils against corruption at India Gate and other places. But, when it comes to raising an alarm or being an eye-witness, it doesn't seem to be a part of revolution. There is no sense of heroism in refusing the TTE his illegal fees and asking him for the official receipt and pay the genuine. Instead there is sense of heroism in getting it done in 100 bucks when it might have costed 300!

The reality is that we are too casual about everything. Someone will come and take care of everything. We are driven by the mindset that there lies a 'Taaranhaar' ahead so why bother? Lets lead our normal, comfortable lives and leave it for others to sacrifice.

Unless we take charge of everything at hand, things will not change.


Solution: effective education and quality leadership

My dear countrymen! I would just be creating a false sense of comfort if I say that Lokpal Bill will be able to deal a significant blow to the monster. The reality is that the solution lies elsewhere. Even the first powerful movement against corruption owes credit to education, to awareness.


Its very important that people shed their ignorance and become concerned and hence aware about their society, their state, their nation. If one feels safe in the sofa watching sops, he will be paying the price for his indifference some day. The country needs vigilant citizens to increase the accountability of the system. The nation reckons motivated people to take up the role to lead the nation. The day is not a distant dream when we will feel it before we say 'Mera Bharat Mahaan', if everyone of us becomes Anna for 5-10 minutes everyday. One will not need to become Anna for his whole life then! 




Background Music: Hum me hai hero


Wednesday, August 31, 2011

अन्ना नहीं नेता इस लोकतंत्र के लिए खतरा हैं


 सुनहरे भारत का स्वप्न एक ऐसी relay race थी जिसमे गांधीजी के बाद जो भी धावक आये वो उस बड़ी सोच से कटते चले गए और इसे निजी स्पर्धा समझने लगे| दुर्भाग्यवश, आज़ादी के कुछ दशकों बाद ये स्पर्धा अकूत संपत्ति के अर्जन की प्रतिस्पर्धा में बदल गयी| नतीजा आज पूरे राष्ट्र के सामने है : भ्रष्टाचार राजनीति की रगों में इस कदर बहने लगा है कि इन दोनों को अलग कर पाने के लिए स्पेशल सर्जरी की जरूरत है | जन लोकपाल के जोश में जन-जन के कूदने के फायदे तो हुए हैं पर इसके नुकसानों की चर्चा भी जरूरी है| मैं उन नुकसानों को सिरे से नकारता हूँ जो सत्तावर्ग ने अपने फायदे के लिए चर्चित किये हैं: इस तरह के आन्दोलन लोकतंत्र के लिए सही सन्देश नहीं हैं वगैरह वगैरह | दुर्भाग्यवश इन तर्कों के खरीददार वे तथाकथित बुद्धिजीवी भी हैं जो या तो इस आन्दोलन में अपना कोई बड़ा योगदान नहीं देख पाते या फिर सिर्फ अलंग स्टैंड रखने के फैशन के शिकार हैं | इस वर्ग से गहरी सहानुभूति रखते हुए मैं भ्रष्टाचार से लड़ने की लोकपाल की काबिलियत पर प्रश्न उठाना चाहता हूँ | जन लोकपाल के प्रति लोगों में जो गहरी आस्था उमड़ी वह स्वतःस्फूर्त थी | एक विशाल दैत्य से लड़ने के लिए लोगों को जो हथियार मिल जाएगा लोग उसी में विश्वास कर लेंगे क्यूंकि उसके अत्याचारों से लोग त्रस्त हैं और उनके पास विकल्प नहीं हैं | विकल्प  तो दूर की बात लोग अब तक इसे जीने का तरीका मान चुके थे |



अन्ना का जादू चल गया 

 अगर हम आजादी के बाद से अब तक के भारत को एक विश्लेषक कि नज़र से देखें तो अन्ना जो कर पाए वो किसी जादू से कम नहीं| सौ-सवा सौ वर्षों के संघर्ष के बाद भारत विश्राम की मुद्रा में इस कदर लेटा था  कि उसे अपने रोटी-दाल और मारुति 800 के सिवा किसी भी बात की चिंता नहीं थी| कभी-कभार इसपर चिंता कर लिया करते थे कि सचिन का शतक क्यूँ नहीं हो पाया | उस पीढ़ी ने आज के युवाओं को पहले से ही सरफिरा और गैर-जिम्मेदार करार दे रखा है | मीडिया ने तो 'Pizza Generation' और 'Twitter Generation' जैसे नए जुमले भी फैशन में ला दिए हैं| इस पीढ़ी के लिए चिंता दाल-रोटी और कम्मो कि शादी से ऊपर उठ चुकी थी और उसने अपने आस-पास की हर चीज़ पर प्रश्न चिन्ह लगाना शुरू किया| उत्तर उसे हर बार बेतुके मिले| देश की इस नयी पीढ़ी को हर चीज़ से adjust करने के लिए प्रेरित किया गया| कुछ ऐसे थे जिन्होंने adjust करना तर्क करने से बेहतर समझा, कुछ ने बीच का रास्ता निकाला और विदेशों में जा बसे, जहाँ इस लडाई का scope नहीं था| पर बाकी के लोगों ने इन सवालों को मौन कर अपने दिल में रख लिया और उसके उत्तर तलाशते रहे | सब उत्तर एक ही और इशारा करते दिखे: व्यवस्था परिवर्तन- systemic change| 


जब अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम ने अन्ना से भ्रष्टाचार के विरुद्ध लडाई में अन्ना हजारे को नेतृत्व के लिए मना लिया तब भारत खुद एक विश्वसनीय चेहरा ढूंढ रहा था| अगर ये चेहरा 74 वर्ष के इस बुजुर्ग का न होकर किसी युवा का होता तो ये आन्दोलन इससे कई गुना बड़ा होता पर इतना नियंत्रित और अनुशाषित न हो पाता| जिन्होंने एक सोते हुए भारत को देखा है, 'चलता है' कहकर रिश्वत देने वाले भारत को देखा है उनके लिए ये आन्दोलन हतप्रभ करने वाला है, चमत्कार है पर जिसने मेरे भारत की बेचैनी देखी है उनके लिए ये ट्रेलर था, स्वाभाविक था|

लोकपाल नहीं तो फिर क्या?

ये बात मानी जा सकती है कि भूखे को दो रोटी से भी फर्क पड़ता है, पर सवाल है कि हम भूख के परमानेंट इलाज के लिए concerned हैं या दो रोटी खिलाने की अपनी ख़ुशी के लिए | नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर सौ की बजाय पांच सौ माँगने वाले ऑटो चालक पर लोकपाल एक्शन नहीं ले पायेगा ना ही pantry staff से 10 रुपये की पानी की बोतल 10 ही रुपये में दिला पायेगा| ट्रेन में reservation नहीं मिल पाने पर फिर भी TTE को 100 के नोट वाले गांधीजी ही समझा पायेंगे | आम नागरिक को paassport , राशन कार्ड और driving license रोज नहीं बनवाना होता उसे तो रोज़मर्रा की जिंदगी में जिन अफसरों से पाला पड़ता है उनमे सबसे बड़ा तो शायद सड़क का ठुल्ला ही होता है|

ये बात और है कि बतौर राजीव गाँधी केंद्र से चले 1 रुपये में से जो 15 पैसे ही विकास कार्य में पहुँच पाते थे वो आंकड़ा हो सकता है लोकपाल, वो भी एक सशक्त लोकपाल, की वजह से 25 पैसे हो जाए| पर बचे हुए पचहत्तर पैसे के लिए राजनीति और beaurocracy में नैतिकता और development के प्रति तत्पर सोच की जरूरत है | ये सोच किसी कानून और बतौर राहुल गाँधी किसी 'संवैधानिक संस्था' से नहीं आ सकती, इसके लिए तो इस बिरादरी में ज़मीन से उठे  हुए कर्मठ ब्रिगेड की शिरकत जरूरी है| भ्रष्टाचार को नसों से निकाल पाने के लिए पदों पर उन लोगों के आने की जरूरत है जो जेबे भरने और कोठियां खड़ी करने के लिए आईएस या नेता नहीं बनते बल्कि देश के उत्थान के लिए जीते हैं | 

जरूरत इस बात को भी समझने की है कि IAS, IPS जैसी उच्च सेवाओं में योग्यता के अनुपात में सरकार वेतन नहीं देती |  ऐसे में टॉप Universities की तरह साल के कुछ निर्धारित दिन consultancy के लिए दिया जाना भी वेतन बढाने के सिवा एक विकल्प हो सकता है | सांसदों का वेतन बढ़ना एक सही कदम था और ये अभी और भी बढ़ना चाहिए| हम हर बात में अमेरिका को एक standard की तरह देखते हैं तो हमे ये भी देखना चाहिए कि US Senator की सालाना तनख्वाह $174,000 है| इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सिस्टम ऐसा है कि इसने रिश्वतखोरी को एक जरूरत बना दिया है | सिस्टम में बुनियादी बदलाव अवश्यम्भावी हैं |


विधानसभा से संसद तक: अनपढ़, नालायकों की जमात 


ओम पुरी, किरण बेदी और उनकी टीम के अन्य साथियों पर विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाने वाली संसद से मेरा सवाल है कि सांसदों पर टिप्पणी करना अगर गलत है तो आम जनता के पैसों से चल रही संसद का अपना काम न करना ज्यादा गलत है| ऐसे में पूरे देश की जनता की तरफ से इस संसद पर मैं जनता के अधिकारों के हनन का मुकदमा दायर करता हूँ | विधानसभाओं में कुर्सियां और चप्पलें जब चलती हैं तो भी जनता के मान-सम्मान को ठेस पहुंचती है | उस मानहानि का क्या जो सत्र-दर-सत्र आप सभी ने संसद की कार्यवाही ठप करके की है ? 

संसद मुझे ये बताये कि लालू यादव सरीखे १०० प्रतिशत भ्रष्ट नेताओं द्वारा अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल का मजाक उड़ाने और सदन का मेजें पीटकर समर्थन करने के खिलाफ मुझे विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव कहाँ पेश करना होगा ?


संसद मुझे ये भी बताये कि देश की जनता की भावनाओं को सामने लाने वाली मीडिया और पढ़े-लिखे समाज का जो मज़ाक शरद यादव ने उड़ाया था उसके खिलाफ कार्यवाही कहाँ और कब होगी?


मैं इस संसद को दो टूक शब्दों में ये कह देना चाहता हूँ कि 'संसद supreme है' ये गाने से आपको सम्मान की नज़रों से नहीं देखा जाएगा| पहले आप अपना स्तर सुधारिए, अपने काम पर ध्यान दीजिये फिर हमसे सम्मान की अपेक्षा करियेगा| नहीं तो सांसदों की बखिया उधेड़ने वाला हर ओम पुरी ऐसे ही घर-घर का सुपरस्टार बनता रहेगा| संसद और डेमोक्रेसी को सबसे बड़ा खतरा नाकारे सांसदों से है, घटिया नेताओं से है, किसी अन्ना हजारे से नहीं और न ही किसी जन आन्दोलन से है|

Corruption-free भारत का सपना

इंडिया के वर्ल्ड कप जीतने पर जो जन-उन्माद दिखा था वो ऐसी जनता का उन्माद था जिसके पास एक साथ celebrate करने की वजहें कभी नहीं होती | क्रिकेट इसलिए इस देश को जोड़ता है क्यूंकि 'दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है' | एक सुव्यवस्थित, समृद्ध  और नेताओं के नहीं जनता के भारत का सपना जो इस युवा पीढ़ी ने देखा है उसके लिए आगे व्यवस्था परिवर्तन की एक लम्बी लड़ाई है| अन्ना की अगस्त क्रांति तो बस पहला कदम है| 

ये तो भविष्य को बताना होगा कि स्वर्णिम भारत का सपना लिए कौन और कब गांधीजी की डंडी को अपने हाथ में थामता है|
जय हिंद |
जय युवा |

Saturday, August 27, 2011

Future Calling




कल सुबह तेरा रंग देखेगा हिंदुस्तान 
सूरज! बादलों की ओढ़नी मत ले आना 
नहीं तो भोले-भालों को यकीं हो जाएगा 
कि मुश्किलों का ज़माना अब मिट चुका है 

बुरा मत मानना दोस्तों 
मुझे इतिहास बनने से ज्यादा 
भविष्य सँवरने की फिक्र है 
इतिहास तो बस मेरे तुम्हारे 
पदचिन्हों का जिक्र है 

Friday, August 26, 2011

ANNA EK, IRAADE NEK, BHRASHT NETA ANEK


Rohan:  I wish to change the operating sytem. It hangs time and again. It takes a lot of time to execute even simple processes. It consumes much  more resources than it deserves. Its inefficient. Its not even user-friendly. Why not upgrade it or rather change it.

Manmohan: Look I’ll install the latest version of Microsoft Word as Administrator is Supreme: there’s nothing above it! The speakers are very good and the cabinet case of CPU is admired by the whole world! In any case, changing the operating system is not the only solution. We can deploy sweepers for cleaning everything once in a year, we can spray perfumes all around to keep the users happy.  We can have small flower-pots surrounding the………… 

Manmohan is going on with his nonsense without knowing an iota of what the common man Rohan has to convey. The problem with pure academics and zero leadership and no connect to the masses has been best demonstrated by Mr Manmohan (he would have deserved to be called Dr Manmohan Singh had he been the finance minister). His government and for that matter most of the leaders have failed to decode the writings on India’s streets.


Aandolan is artificial

Theory No 1: It’s a media generated movement.

Theory No 2: It’s an urban movement (as if people in cities do not have a say in electoral democracy)

Theory No 3: Middle class protests (you know, middle class doesn’t come out to vote!)

Theory No 4: It’s an upper caste movement (Cudos!)



Our respected netas use such sophisticated gadgetry that they listen only that they wish to. They can’t listen that on a day when youth of India is striving for excellence in his professional and utmost satisfaction in his personal life and working hard for it, it can’t tolerate frozen and preserved systems of yesteryears where people need extra bucks to even open a file! They can’t understand how ‘Chalta hai’ people can become restless and say ‘Ab nahi chalega’. It must be fabricated, rehearsed and probably sponsored! Shame on you, leaders of India! If you can’t listen to people’s cry for a change in the outdated, corrupt and frustrating system, at least stop counting how many are dalit and how many Muslims among the faces that flash on your TV screen!


What Lokpal? How will we run our business?

Anna Hazare fasted in April to force the government to include civil society in drafting the Lokpal Bill. See what happens next: Kapil Sibbal and co convey it to Team Anna in simple political style- “Look, we are bringing the Lokpal Bill. Now don’t ask for this provision and that clause. We’re bringing the bill which all the prior parliaments avoided, should be more than enough for you. If you come with us, ok; if you don’t come with us, then also its ok.”

When a hollow bill in the name of Lokpal Bill is presented in the Loksabha, the govt makes its best attempts to crush any voices raised against it by even denying permission to Anna Hazare for his fast. Hiding behind the Delhi Police, Sibbal and Co send Anna to Tihar after unleashing Manish Tiwari cannon on him couple of days before. Unfortunately, the events took an unprecedented turn and Anna wave started sweeping the country. The govt remained unfazed and looked the other way hoping all this would die down soon. Only when a sea of humanity in support of Anna Hazare compelled them to take some action, they came up new ways of defusing the “Bring Jan Lokpal movement”. First strategy was to make it Anna Vs Parliament alongwith ‘threat  to democracy’ campaign with a few appreciations here and there.

It was an amazing eyewash that Loksabha came up with its unanimous appeal to Anna Hazare to end his fast in lieu of parliament’s resolve(?) to bring a ‘majboot’ Lokpal bill, without mentioning the specifications of the bill. None of the parties have come out in support of the Jan Lokpal Bill which has strong provisions to curb corruption and create a fear for the corrupt. Of course, all the MPs are worried that how will they make their living in just Rs 80,000 plus free facilities for almost everything. It wont be easy for the ministers to survive with a few lacs per month. The party funds and election expenditure also presents a worrisome picture for all of them.

My fellow countrymen and ever-determined Team Anna, be prepared for a really long war to see the end of corruption in our country. This movement is a real threat to the Multi-Trillion-Dollar industry called Corruption and the industry will use all its might to nullify the upsurge.


The great Indian Political Tamasha!

A movement which was aimed at implementing  Jan Lokpal Bill and which gained such support from the nation that neither govt, nor media and nor even Team Anna had expected, is begging to end on discussions of three provisions of the bill! This miracle is the outcome of the tamasha created by all political parties along with their big brigade of uneducated and also illiterate leaders, aided by an almost equally naïve  media. Very sadly, Anna Hazare and his chief warrior: Arvind Kejriwal had no clue about the unfolding of this tamasha. They just wish to find a sound cause to end Anna’s fast and the frustration in their camp is visible by the mimicry put up by Kiran Bedi on 26th evening at Ramlila stage.


I strongly feel that the incumbent system will make every attempt to save itself from any radical change and Corruption will remain a monster looking into our face and asking us :”Look, you can do nothing, Can you?” till the breed of people at the helm of affairs in government are replaced by a new breed. I see the real hope in the gen Y and middle class coming out to vote sincerely and shun its inhibitions about politics. Most specifically, dropping the mottos of the kind: “Bhagat Singh ho par mere ghar me nahi”.

 Let the day come when the most powerful chairs go to the most deserving men of India.




Thursday, June 09, 2011

Love 20-20


Real love is a monotonically increasing function.


Love is a force that works against gravity. It makes you feel lighter.


Love downloads stuff faster than 3G. You get everything the moment you close your eyes.

Friday, May 06, 2011

Kavita ke Saath Bakar: OSAMA-OBAMA Par




बिस्मिल अज़ीमाबादी 


Obama: सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे SEAL में है 
             देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-Qaedil में है |

Zardari :वक़्त आने पे बता देंगे तुझे ऐ ओबामा
             हम अभी से क्या बताएं क्या पाक के बिल में है |


भगवतीचरण वर्मा

हम आतंकियों की क्या हस्ती,
हैं आज US  कल पाक चले
आतंक का आलम साथ चला,
हम बम उडाते जहाँ चले




     हरिवंश राय बच्चन

अग्नि पथ, अग्नि पथ, अग्नि पथ !

ट्रेड टावर हों खड़े,
हों घने,हों बडे़,
एक भी अमरीकी को छोड़ मत, छोड़ मत,छोड़ मत!
ओसामा पथ, ओसामा पथ, ओसामा पथ !

तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू मुड़ेगा तभी- ओसामा को मार कर- कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!
ओबामा पथ, ओबामा पथ, ओबामा पथ !

यह 
द्रश्य महान  है-
बोल रहा पाकिस्तान है
आरोप-प्रत्यारोप से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
शर्म पथ, शर्म पथ, शर्म पथ !



    गोपालदास "नीरज"


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, इराक अफगान को धमकाने वालों

कुछ अपनों के मर जाने से, क्यों अमरिका सब पर हमला करता है


ओसामा क्या है, तालिबान सेज पर

सोयी हुई अमरिका की करनी 

और US पर हमला ज्यों

जागे कच्ची नींद जवानी

गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों

एक ओसामा के मर जाने से, अल कायदा नहीं मरा करता है




    निदा फाज़ली


ISI वालों को खबर क्या, अमरीका क्या चीज है 
पाक घुसिए, ओसामा मारिये और कहिये क्या SEAL है |



 रामधारी सिंह "दिनकर"

ओबामा की चेतावनी 

वर्षों तक अफगानिस्तान घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह मिसाइल-बम, कायदा-लश्कर, अमरीकी गए कुछ और बिफर।
दुर्भाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

आतंक की राह छुडाने को, पाक को सुमार्ग पर लाने को,
ISI को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
अमरीकी पाकिस्तान आये,
ओबामा का संदेशा लाये।

'हो रखना अगर तो 
रक्खो दाउद, लखवी, अजहर मौलाना 
हम इंडिया से नहीं कहेंगे, हमको दे दो तुम ओसामा।
दो billion और भिजवाएंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

ज़रदारी वह भी दे ना सका, आशीष US की ले न सका,
उलटे, लादेन को छुपाने चला, जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

ओबामा ने भीषण हुंकार किया, सीआईए को अधिकार दिया
डगमग-डगमग CHOPPER डोले, एबटाबाद पर बरसे गोले
'सीमा लांघ, ओसामा मारा तू रोक सके तो रोक मुझे,
हाँ, हाँ ज़रदारी! टोक मुझे। '




   अटल बिहारी वाजपेयी

अफगानिस्तान के
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न शांति ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
ओसामा बिन लादेन
जिसका रूप धारण कर,
आतंक की आग बरसाता है, और दुनिया रोती है।

एक का क्या नाम लूं 
आतंकी तो कई हैं
पाकिस्तान से कह दो 
ये अच्छी बात नई है, 
नई है,
नई है |






    मिर्ज़ा ग़ालिब 

हजारों "camp" हैं और ऐसे के जहाँ बस गोली बम निकले,
मगर उनसे है क्या मतलब, बस ओसामा का दम निकले |

के मरना आतंकवादियों का हमले में, सुनते आये हैं लेकिन,
बड़े कायदे से इस attack में ओबामा का 2nd term निकले |

Contributed by: Kumar Abhinav


Any further additions to the list will be highly appreciated, with due credits. 

About the blog: A humorous/ sarcastic take on Osama Bin Laden killed by US Navy SEALs in Firefight on 2nd May, 2011. 

Thursday, May 05, 2011

The smears. And the facts about the Bhushans


Last week, our cover story got some things wrong. Rohini Mohan sets the record straight
LAST WEEK, TEHELKA did a cover story on lawyers Shanti and Prashant Bhushan — The Legal Samurai (30 April). Regrettably, while detailing the controversies swirling around them, we got facts wrong on three key counts. This, unfortunately, has added to the cloud of misinformation and prejudice around the Bhushans. This was not our intention. We wish to set the record straight.
Like much of the media, we had misreported that Shanti and his other son, Jayant, had received two plots in Noida at rates far lower than their cost, and that Shanti had not mentioned this land when he declared his assets as a member of the Lokpal Bill drafting committee. To the contrary, Bhushan senior had indeed declared this asset alongwith others.
A lot of the misinformation around this issue had arisen out of the media’s interpretation of former additional solicitor general Vikas Singh’s statements. Singh was also an applicant for plots under the same scheme. He told the media that there had been no transparency in the allotment procedure and that he had been fighting this issue with a petition in the Allahabad High Court. Given the pace of events and statements and counter-statements on television shows, it is difficult now to trace the genesis of this, but in a short while it became the accepted truth that the Bhushans had got plots worth Rs 15-20 crore for Rs 35 lakh.
What nobody knew or bothered to highlight was that Singh’s petition was not in public interest. In his petition, he had complained that his own allotted plot was in a bad location (Sector 162) while some “favoured persons” had received plots in a location much closer to Delhi. Some persons had been allotted plots earlier near Sector 125, a better spot, 10 km away. He prayed for an allotment of his choice. Alternatively, he asked that if he was not given a better plot, all the allotments be cancelled and the plots be auctioned instead. Clearly, Singh was invested in the outcome of the petition and it could not be counted as a PIL, as the media was reporting.

Singh had also filed his case on 13 April — after the Bhushans had been nominated into the Lokpal Bill drafting committee. Moreover, Singh’s petition had been dismissed by the high court on 16 April. When Singh first raised this controversy on 20 April, he did not tell the media that his petition had already been dismissed. Confronted by this omission later, he defended it saying he had not received the order dismissing his petition.
The media had assumed that the “favoured persons” were the Bhushans. However, the Bhushans too had been allotted farm plots within a kilometre of the “poor locality” of Singh’s plot. What’s more, they had applied for the plots 19 months before Singh but were allotted the plots at the same time and at the same rate of Rs 3,500 per sq metres. Crucially too, the Bhushans had responded to an open advertisement about the plots in a newspaper. Many asked if there could have been a conflict of interest in accepting this land as Jayant Bhushan was the lawyer appearing against the UP government in the Mayawati Statues case and Prashant and Shanti Bhushan were appearing against Mayawati in the Taj corridor case.
However, there was clearly no conflict of interest because Chief Minister Mayawati had no discretionary power over the allotments. Also, the Bhushans ended up with plots, like Singh’s, though they had applied much earlier. So, in all the noise that ensued, on hindsight, it is unclear how the Bhushans came to be deemed as “favoured”.
ShantiPrashant Bhushan
Embattled Shanti (left) and Prashant Bhushan are fighting fire
Photos: Rohit Chawla
Given that Singh himself did not value the plot he had been given or believe it was worth much more than what he had paid for it, it’s unclear how everyone assumed that the Bhushan’s plots, in a similar locality, were worth Rs 20-25 crore. In fact, contrary to the common perception that the Bhushans got property worth Rs 20-25 crore for Rs 35 lakh, the cost of each plot is Rs 3.67 crore plus an annual lease rent of Rs 9.18 lakh for 90 years. In some media reports, Singh had reportedly asserted that the Bhushans paid only Rs 35 lakh. The Bhushans clarify that they have already paid Rs 83 lakh. The rest is payable in 16 instalments with interest.
OUR THIRD error was in the details surrounding the misconception that the Bhushans had evaded stamp duty on their ancestral property in Allahabad. They had asserted that this was a baseless smear campaign, but many in the media (including TEHELKA’s essay Truth in the Din of War) had reported that the UP government’s notice to them about the stamp duty evasion predated the Lokpal controversy and, therefore, could not merely be fobbed off as a malicious campaign. However, the truth as usual, is in the details.
In retrospect, the Bhushans were not at fault. They did receive one notice before the Lokpal controversy but this notice on stamp duty received by them, dated 5 February, was not about evasion of stamp duty but fordetermining the stamp duty. Moreover, this notice had actually come in response to the Bhushans’ own application to the stamp collector in September 2010, asking him to determine the stamp duty. The notice had set 22 April for a hearing on the issue in Allahabad.
The Bhushans paid Rs 83 lakh for the Noida plot. The rest is payable in 16 instalments
However, on 15 April, Congress leader Digvijaya Singh alleged that the Bhushans had evaded stamp duty worth Rs 1.33 crore. The same day, the Stamp Duty collector issued a reminder notice mentioning the figure of Rs 1.33 crore, which, according to the Bhushans, had not been mentioned in the February notice. The date of the hearing was also changed from 22 to 28 April. The Bhushans say they received the second notice only when their lawyer appeared for the hearing on 22 April. They ask how Digvijaya Singh could have obtained information about the second notice, especially if they themselves had not been served the second notice till then.
The Jan Lokpal Bill has generated heated debate. TEHELKA too has had reservations about the nature of the agitation and the shape of the current draft of the Bill, even as it supports the need for a strong Lokpal Bill and a campaign against corruption. However, over the past two weeks, the debate about the Bill had skidded off into an ugly campaign against the Bhushans themselves. If it had been based on facts, the challenges they faced would have been valid. As it turns out, so far all the allegations have been based on innuendo and half-truths rather than hard facts. TEHELKA regrets that it unwittingly added to the misinformation.
Rohini Mohan is a Special Correspondent with Tehelka.
rohini@tehelka.com

Wednesday, May 04, 2011

Kavi Man Jaag Utha: The Return of the Kavi (2011)



तेरे साथ जो वक़्त बिताया, वही money है 

बोल जो मीठे बोले तुमने, वही honey है 

प्यार में तेरे डूब, जिसका ego मिट जाए 

जहाँ क्या, खुदा तक की उसको बेकमी है |


Painting by Arnab Kanti Mishra


Note-gadget की race ये भैया बड़ी funny है 

बाहर है हुडदंग, अन्दर, दिली गली सूनी है 

गीत-नृत्य कुछ ऐसा कि जीवन still हो जाए 

साथ तेरे, स्वर्गों से सुन्दर ये ज़मीं है |